Preface
गायत्री मंत्र का इक्कीसवाँ अक्षर "प्र" मनुष्य को उदारता और
दूरदर्शिता के गुणों को प्राप्त करने की शिक्षा देता है ।
प्रकृतेस्तु भवोदारो जानुदारः कदाचन ।
चिन्तयोदार द्वष्ट्यैव तेन चित्तं विशुद्धयति । ।
अर्थात्- "अपने स्वभाव को उदार रखो, अनुदार मत बनो । दूरदृष्टि से विचार करो । ऐसा करने से चित्त पवित्र होता है ।"
अपनी रुचि, इच्छा, मान्यता को ही दूसरे पर लादना, अपने गज से सबको नापना, अपनी ही बात को, अपने ही स्वार्थ को सदा ध्यान में रखना अनुदारता का चिन्ह है । अनुदारता पशुता का प्रतीक है । दूसरों के विचारों, तर्कों, स्वार्थों और उनकी परिस्थितियों को समझने के लिए उदारतापूर्वक प्रयत्न किया जाय तो अनेकों झगड़े सहज ही शान्त हो सकते हैं । उदारता में दूसरों को अपना बनाने का अद्भुत गुण है ।
जितने अंशों में दूसरों से एकता हो, सर्व प्रथम उस एकता को प्रेम और सहयोग का माध्यम बनाया जाय । मतभेद के प्रश्नों को पीछे के लिए रखा जाय और मन की शान्त अवस्था में उनको धीरे-धीरे सुलझाया जाय । सामाजिकता का यही नियम है । जिद्दी, दुराग्रही, घमण्डी, संकीर्ण भावना वाले मनुष्य गुत्थियों को सुलझा कर दूसरों का सहयोग पाने से प्राय: वंचित रहते हैं ।
Table of content
1. उदारता एक महान गुण है
2. गरीब व्यक्ति भी उदार हो सकते हैं
3. दूसरों के दोष मत ढूँढि़ए
4. संकीर्णता मनोमालिन्य की उत्पादक है
5. धैर्य एक महत्त्वपूर्ण गुण है ?
6. प्रत्येक परिस्थिति में आगे बढि़ए
7. आश्रितों के प्रति उदारता
Author |
Pt. Shriram sharma acharya |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
24 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |