Preface
धर्म का पालन करने में ही कल्याण है
यतोऽभ्यूदय नि:श्रेयससिद्धि: स धर्म: ।।
अर्थात " है धर्म वह है, जिसमें इस लोक में अभ्युदय हो और अंत में मोक्ष की प्राप्ति हो ।।
इस न्याय के अनुसार जिसने धर्म का पालन किया, वही अपने जीवन को सार्थक बना सका ।। मनुष्य, पशु पक्षी आदि सभी अपने- अपने स्वाभाविक धर्म का निर्वाह करते हैं ।। धर्म ही इस लोक और परलोक का निर्माता है ।। यही एक ऐसा सुगम मार्ग है, जो जीवननैया को पार लगाने में सहायक होता है ।।
धर्म उस सर्वव्यापक परमात्मा का श्रेष्ठ विधान है ।। वही संपूर्ण जात को धारण करने वाला है। उसी के सहारे पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं ।। समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, यह उसका धर्म है ।। जलवृष्टि करना मेघ का धर्म है ।। दग्ध करना अग्नि का धर्म है ।। इस प्रकार सब अपने- अपने धर्म पर अटल हैं ।।
एक बार एक राजा ने अपराधी के तर्क का उत्तर देते हुए कहा- " सर्प का धर्म काटना है, वह मनुष्य को काट खाए तो उसका कुछ अपराध नहीं है ।। अपराध उस मनुष्य का है, जिसने सर्प के बिल में हाथ डालकर अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य किया ।"
ईश्वर जैसे अनादि और सनातन है, वैसे ही धर्म भी सनातन है ।। जिसने धर्म के विरुद्ध कार्य किया, वही नष्ट हो गया ।। रावण, कंस, दुर्योधन आदि अनेक महाबलवानों का उदाहरण दिया जा सकता है, जो धर्म के विपरीत चलकर नष्ट हो गए ।। उनके कुलों में कोई रोने वाला भी उस समय शेष नहीं बचा ।।
Table of content
• धर्म का पालन करने में ही कल्याण है
• धर्म ही रक्षा करेगा, और कोई नहीं
• धर्मरक्षा से ही आत्मरक्षा
• धर्म आवश्यक है और उपयोगी भी
• धर्म विश्व विचारकों की दृष्टि में
• धर्म का स्वरुप और उसका उपयोग
• अधर्म और पापाचार से बचिए
• धर्म की सच्ची भावना का प्रवर्तन हो
• सुख और शान्ति का राजमार्ग धर्माचरण
Author |
Pt. shriram sharma |
Edition |
2011 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
40 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |