Preface
प्रकृति का अनुसरण
गायत्री मंत्र का आठवाँ अक्षर "ण्य" प्रकृति के साहचर्य में रह कर तदनुकूल जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है-
न्यस्यन्ते ये नरा पादान प्रकृत्याज्ञानुसारतः ।।
स्वस्थाः सन्तुस्तु ते नूनं रोगमुक्ता हि ।। ।।
अर्थात्- "जो मनुष्य प्रकृति के नियमानुसार आहार- विहार रखते हैं वे रोगों से मुक्त रहकर स्वस्थ जीवन बिताते हैं ।"
स्वास्थ्य को ठीक रखने और बढा़ने का राजमार्ग प्रकृति के आदेशानुसार चलना, प्राकृतिक आहार- विहार को अपनाना प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना है ।। अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, कृत्रिम, आडम्बर और विलासितापूर्ण जीवन बिताने से लोग बीमार बनते हैं और अल्पायु में ही काल के ग्रास बन जाते हैं ।।
मनुष्य के सिवाय सभी जीव- जन्तु पशु- पक्षी प्रकृति के नियमों का आचरण करते हैं ।। फलस्वरूप न उन्हें तरह- तरह की बीमारियाँ होती हैं और न वैद्य- डाक्टरों की जरूरत पड़ती है ।। जो पशु- पक्षी मनुष्यों द्वारा पाले जाते हैं और अप्राकृतिक आहार- विहार के लिए विवश होते हैं वे भी बीमार पड़ जाते हैं और उनके लिए पशु चिकित्सालय खोले गये हैं ।। परन्तु स्वतंत्र रूप से जंगलों और मैदानों में रहने वाले पशु- पक्षियों में कहीं बीमारी और कमजोरी का नाम नहीं दिखाई पड़ता ।। इतना हो नहीं किसी दुर्घटना अथवा आपस को लड़ाई में घायल और अधमरे हो जाने पर भी वे स्वयं ही चंगे हो जाते हैं ।। प्रकृति की आज्ञा का पालन स्वास्थ्य का सर्वोत्तम नियम है ।।
Table of content
1. प्रकृति का अनुसरण
2. प्राकृतिक सौन्दर्य
3. प्रकृति हमारी भूलें सुधारती है
4. प्राकृतिक रूप से स्वस्थ मनुष्य की पहचान
5. प्रकृति तत्व से हमारी अनभिज्ञता के दुष्परिणाम
6. प्रकृति और दीर्घ जीवन
7. तत्वों की न्यूनाधिकता से रोगोत्पत्ति
8. मिट्टी का उपयोग
9. अग्नि तत्व का प्रयोग
10. जल तत्व का प्रयोग
11. वायु तत्व का प्रयोग
12. आकाश तत्व का उपयोग
13. स्वास्थ्य रक्षा का सर्वश्रेष्ठ मार्ग
Author |
Pt. shriram sharma |
Edition |
2011 |
Publication |
yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
24 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |