Preface
परिजन हमारा दर्द समझें
नियति की विधि- व्यवस्था के आगे मनुष्य के अरमानों का भला क्या मूल्य हो सकता है ।। भवितव्यता अपने ढंग से घटित होती जाती है ।। उसे क्या पता कि कौन क्या सोच रहा था और क्या करने जा रहा था ।। संतोष इतना ही है कि एक नियत दिशा की ओर उन्मुख होकर जीवन- क्रम आरंभ हुआ है और अंत तक उसी दिशा में चलता रहा ।। परिस्थितियों ने क्रम बदले, गति में तीव्रता और मंदता आई पर प्रक्रिया निर्धारित लक्ष्य की ओर ही गतिशील रही ।। आम तौर से अंतिम समय अधिक विश्वास और शांति के साथ बिताते है या बिताने की सोचते हैं ।। हमारा प्रारब्ध कुछ दूसरी किस्म का है ।। हमें सबसे अधिक सक्रिय और सबसे अधिक उत्तम इन्हीं दिनों होना है ।। शरीर जरा- जीर्ण हो चला है सो ठीक है पर अंतरात्मा की प्रौढ़ता में अभिवृद्धि ही हुई है ।। सो हमें जो करना है उसके प्रति तनिक भी असमंजस नहीं ।। सच पूछिए तो उत्साह ही अधिक है ।।
उदासी केवल स्वजनों -परिजनों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क झीना पड़ जाने भर की है ।। जिनके साथ लंबी अवधि से अति स्नेह, सौजन्य, स्वभाव, सहयोग, श्रद्धा और आत्मीयता भरे संबंध बने रहे, बार- बार जिनसे समीपता का संपर्क बना रहा अब वह संभव न होगा यह कल्पना जी को तोड़ती है और एक ऐंठन भरा दर्द पैदा करती है ।। प्राणी का सरल स्वभाव ही यह है कि प्रियजनों का बिछुड़ना कुछ कष्टकारक होता है ।। यह प्रिय पात्रता जितनी घनिष्ठ होती है उतनी ही बिछोह की व्यथा तीव्र होती है ।।
Author |
Pt Shriram sharma acharya |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
96 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |