Preface
आज ऋषि लोक का पहली बार दर्शन हुआ। हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों-देवालय, सरोवरों, सरिताओं का दर्शन तो यात्रा काल में पहले से भी होता रहा। उस प्रदेश को ऋषि निवास का देवात्मा भी मानते रहे हैं, पर इससे पहले यह विदित न था कि किस ऋषि का किस भूमि से लगाव है? यह आज पहली बार देखा और अंतिम बार भी। वापस छोड़ते समय मार्गदर्शक ने कह दिया कि इनके साथ अपनी ओर से सम्पर्क साधने का प्रयत्न मत करना। उनके कार्य में बाधा मत डालना। यदि किसी को कुछ निर्देशन करना होगा, तो वे स्वयं ही करेंगे। हमारे साथ भी तो तुम्हारा यही अनुबंध है कि अपनी ओर से द्वार नहीं खटखटा ओगे। जब हमें जिस प्रयोजन के लिए जरूरत पड़ा करेगी, स्वयं ही पहुँचा करेंगे और उसी पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटा दिया करेंगे। यही बात आगे से तुम उन ऋषियों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हो, जिनके कि दर्शन प्रयोजनवश तुम्हें आज कराए गए हैं। इस दर्शन को कौतूहल भर मत मानना, वरन् समझना कि हमारा अकेला ही निर्देश तुम्हारे लिए सीमित नहीं रहा। यह महाभाग भी उसी प्रकार अपने सभी प्रयोजन पूरा कराते रहेंगे, जो स्थूल शरीर के अभाव में स्वयं नहीं कर सकते। जनसम्पर्क प्रायः तुम्हारे जैसे सत्पात्रों-वाहनों के माध्यम से कराने की ही परम्परा रही है। आगे से तुम इनके निर्देशनों को भी हमारे आदेश की तरह ही शिरोधार्य करना और जो कहा जाए सो करने के लिए जुट पड़ना। मैं स्वीकृति सूचक संकेत के अतिरिक्त और कहता ही क्या? वे अंतर्ध्यान हो गए।
हमारा परिजनों से यही अनुरोध है कि हमारी जीवनचर्या को घटना क्रम की दृष्टि से नहीं वरन् पर्यवेक्षक की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए कि उसमें दैवी अनुग्रह के अवतरण होने से ‘‘साधना से सिद्धि’’ वाला प्रसंग जुड़ा या नहीं।
Table of content
1. इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता.
2. जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय.
3. समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग.
4. मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश.
5. दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह.
6. गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा.
7. ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार.
8. भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण.
9. अनगढ़ मन हारा, हम जीते.
10. प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण.
11. विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण.
12. मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग.
13. महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई.
14. उपासना का सही स्वरूप.
15. जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती.
16. तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण.
17. ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म.
18. हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ.
19. चौथा और अंतिम निर्देशन.
20. स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण.
21. इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है.
22. जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण.
23. आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन.
Author |
Pandit Shriram Sharma Aacharya |
Edition |
2011 |
Publication |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Page Length |
200 |
Dimensions |
180mm X120mm X 11mm |