Preface
गृहस्थ तप और त्याग का जीवन कहा गया है। इस धर्म के परिपालन के लिए किया गया कोई भी प्रयास किसी तप से कम नहीं है। गृहस्थ में स्वयं को अपनी वृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। चिकित्सा, भोजन, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्धन करने हेतु अपना पेट काट कर सारी व्यवस्था करनी होती है, एक जिम्मेदारी से भरा जीवन जीना पड़ता है। सचमुच गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है, जिसमें प्रत्येक सदस्य उदारता पूर्वक सहज ही एक दूसरे के लिए कष्ट सहते हैं, एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं। गृहस्थाश्रम समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाजनिष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक विकास का भी क्षेत्र है एवं इस प्रकार समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।
श्रेष्ठ संतान, सुसंतति देने की खान गृहस्थ धर्म को ही माना गया है। भक्त, ज्ञानी, सन्त, महात्मा, महापुरुष, विद्वान, पण्डित गृहस्थाश्रम से ही निकल कर आते हैं। उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, ज्ञानवर्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही हो पाता है। परिवार के बीच ही महामानव प्रशिक्षण पाकर निकलते व किसी समाज के विकास का निमित्त बन पाते हैं। इसी कारण इस संस्था के महत्त्व को सर्वोपरी बताते हुए पूज्यवर वाङ्मय के इस खण्ड में दामपत्य जीवन के निर्वाह, सफल दाम्पत्य, जीवन के मूलभूत सिद्धान्त, संतानों की संख्या नहीं स्तर बढ़ाया जाय तथा दाम्पत्य जीवन को एक स्वर्ग जैसा मानते हुए वैसा जीवन जिया जाय, इन सभी पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।
Table of content
• बाल विवाह बंद क्यों नहीं होते
• विवाह वयस्क होने पर ही हो
• सुयोग्य जोड़ियाँ इस तरह मिलेंगी
• विवाह इस प्रकार हों
• दांपत्य जीवन आदर्शो पर आधारित रहे
• विवाह खिलवाड़ नहीं, भारी दायित्व है
• परिवार संस्था का सुसंचालन
• संतानोत्पादन-भारी दायित्व
Author |
pt. shriram sharma acharya |
Edition |
2015 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
56 |
Dimensions |
120X182X20 mm |