Preface
पिछले दिनों बढ़े विज्ञान और बुद्धिवाद ने मनुष्य के लिये अनेक असाधारण सुविधाएँ प्रदान की हैं, किन्तु सुविधाएँ बढ़ाने के उत्साह में हुए इनके अमर्यादित उपयोगों की प्रतिक्रियाओं ने ऐसे संकट खड़े कर दिए हैं, जिनका समाधान न निकला, तो सर्वविनाश प्रत्यक्ष जैसा दिखाई पड़ता है।
इस सृष्टि का कोई नियंता भी है। उसने अपनी समग्र कलाकारिता बटोर कर इस धरती को और उसकी व्यवस्था के लिए मनुष्य को बनाया है। वह इसका विनाश होते देख नहीं सकता। नियंता ने सामयिक निर्णय लिया है कि विनाश को निरस्त करके संतुलन की पुन: स्थापना की जाए।
सन् १९८९ से २००० तक युग सन्धिकाल माना गया है। सभी भविष्यवक्ता, दिव्यदर्शी इसे स्वीकार करते हैं। इस अवधि में हर विचारशील, भावनाशील, प्रतिभावान को ऐसी भूमिका निभाने के लिये तैयार- तत्पर होना है, जिससे वे असाधारण श्रेय सौभाग्य के अधिकारी बन सकें।
Table of content
1. किंकर्तव्य विमूढ़ता जैसी परिस्थितियाँ
2. स्थिति निश्चित ही विस्फोटक
3. बढ़ती आबादी, बढ़ते संकट
4. हर ओर बेचैनी, व्याधियाँ एवं उद्विग्नता
5. वास्तविकता, जिसे कैसे नकारा जाए?
6. सदुपयोग बन पड़े, तो परिवर्तन संभव
7. सदुपयोग बनाम दुरुपयोग
8. सुनियोजन की सही परिणति
9. समाधान इस प्रकार भी संभव था
10. निराशा में आशा की झलक
11. क्रिया बदलेगी, तो प्रतिक्रिया भी बदलेगी
12. तेजी से बदलता परोक्ष जगत का प्रवाह
13. संतुलन नियंता की व्यवस्था का एक क्रम
14. इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य
15. व्यापक परिवर्तनों से भरा संधिकाल
16. युग परिवर्तन का यही समय क्यों?
17. अंत:स्फुरणा बनाम भविष्य बोध
18. वैज्ञानिक शोधें भी पूर्वाभास से उपजीं
19. इक्कीसवीं सदी एवं भविष्यवेत्ताओं के अभिमत
20. धर्मग्रंथों में वर्णित भविष्य कथन
21. उज्ज्वल भविष्य की संरचना हेतु संकल्पित प्रयास
22. विचारक्रांति का एक छोटा मॉडल
23. प्रामाणिक तंत्र का विकास
Author |
Pandit Shriram Sharma Aacharya |
Edition |
2013 |
Publication |
Yug Nirman Yogana Vistar Trust, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Page Length |
56 |
Dimensions |
121mmX181mmX3mm |