Preface
गायत्री और यज्ञ का युग्म है । एक को भारतीय संस्कृति की जननी और दूसरे को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है । दोनों अन्योन्याश्रित माने गये हैं । गायत्री जप का अनुष्ठान यज्ञ का समन्वय हुए बिना पूरा नहीं हो सकता । जप का एक अंश हवन भी करना होता है । पुराने समय की सुविधा सम्पन्न स्थिति में जप का दशांश हवन होता था अब समय को देखते हुए शतांश आहुतियों की व्यवस्था है । इसके बिना अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता । जिनके पास साधन नहीं है उनके लिए विशेष मार्ग यह निकाल दिया गया है कि वे जप की संख्या का दशांश भाग अलग से जप कर लें और उसे यज्ञ की स्थान पूर्ति मान लें । इस विकल्प प्रतिपादन में यज्ञ की उपेक्षा नहीं वरन् अनिवार्यता बताई गई है, भले ही वह सही रूप से सम्पन्न न हो सकी हो और अपवाद की तरह ही अतिरिक्त जप के रूप में क्यों न अपनाई गई हो ।
जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद यज्ञ के साधन न मिल सकने के सन्दर्भ में हुआ है । जनक कठिनाइयाँ बताते रहे हैं और याज्ञवल्ल उसके लिए आपत्तिकालीन सुझाव बताते हुए अनिवार्यता पर हो जोर देते रहे हैं । जनक पूछते हैं यदि हव्य चरु सामग्री न मिल सके तो क्या करें ? उत्तर में कहा गया है कि नित्य खाये जाने वाले अन्न से ही काम चला लें । अन्न भी न हो तो वनस्पतियों से काम चला लें । वनस्पतियाँ भी न मिल सकें तो मात्र समिधाओं का ही हवन कर लिया जाय । अग्नि हो न मिले तो श्रद्धा रूपी अग्नि में ध्यान भावना की समिधा होमकर मानसिक हवन कर लिया जाय । यही है उपरोक्त संवाद के विस्तार का सार संक्षेप ।
Table of content
1. गायत्री और यज्ञ का अन्योश्रित संबंध
2. सूक्ष्म जगत और जन मानस का परिशोधन गायत्री यज्ञों से
3. त्यागने योग्य दुष्प्रवृत्तियाँ
4. अपनाने योग्य सत्प्रवृत्तियाँ
5. दैनिक उपासना में अग्निहोत्र का समावेश
Author |
Pt. Shriram sharma acharya |
Edition |
2013 |
Publication |
Yug Nirman Yojana Vistara Press, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
48 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |