Preface
भावनाओं को श्रेष्ठ आदर्श में नियोजित करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व उसी आदर्श के अनुरूप विस्तृत विराट हो जाता है ।। वह सीमित- संकीर्ण या एकाकी- असहाय नहीं रह जाता ।। भले ही बाहरी तौर पर वह "एकला चलो रे" की नीति अनुसरण का करता- एकाकी बढ़ता दिखे, किंतु, उसे आंतरिक अकेलेपन का अनुभव कभी भी नहीं होता ।। उसका जीवन आदर्श सदा ही उसका साथी, संबल एवं सहायक बना रहता है ।। उसी संबल से वह बड़ी- बड़ी बाधाओं को सहने तथा बड़े- बड़े कार्य करते चलने में समर्थ होता है, अन्यथा अकेले की क्या शक्ति ?
एकाकी व्यक्ति की अपनी थोड़ी- सी सीमा मर्यादा है, अपने बलबूते पर भी कुछ कार्य तो हो ही सकता है, पर वह होगा नगण्य ही ।। बड़ी प्रगति- बड़ी संभावना तो सम्मिलित शक्ति के द्वारा ही मूर्तिमान होती है ।। एक- एक सैनिक अलग- अलग फिरे, तो उनके छुट - पुट कार्य एक सुगठित सैन्य टोली जैसे नहीं हो सकते ।।
कई तरह की योग्यताएँ मिल- जुलकर अपूर्णता को पूर्ण करती हैं ।। परिवार को ही लें उसमें कई स्तर के कई विशेषताओं के मनुष्य मिल- जुलकर रहते हैं तो एक अनोखे आनंद का सृजन करते हैं ।। पति- पत्नी की योग्यताएँ भिन्न- भिन्न प्रकार की होती हैं, जब वे मिलकर एक हो जाते है तो दोनों को ही लाभ होता है, दोनों ही अपने अभावों की पूर्ति करते है ।। वृद्धों का अनुभव, बालकों का विनोद, उपार्जनकर्त्ताओं का धन आदि मिलकर एक ऐसा संतुलन बनता है जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का हित, साधन होता है ।।
Table of content
1. भावनात्मक उत्कर्ष की व्यक्तित्व-विकास का आधार
2. भाव के भूखे हैं भगवान
3. आत्मविकास के लिए भक्तियोग की साधना
4. भक्तिपथ की जीवन नीति
Author |
Pt. Shriram Sharma Aacharya |
Publication |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Publisher |
Yug Nirman Yogana, Mathura |
Page Length |
56 |
Dimensions |
12X18 cm |