Preface
गायत्री मंत्र का चौदहवाँ अक्षर धी जीवन की सर्वतोमुखी उन्नति की शिक्षा देता है-
धीरस्तुष्टो भवेन्नैव ह्योकस्यां समुन्नतौ ।
कृयतामुन्नति स्तेन सर्वास्वाशस्तु जीवने ।
अर्थात- विज्ञ मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति में संतुष्ट नहीं रहना चाहिए वरन् सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए ।
जैसे शरीर के सभी अंगों का पुष्ट होना आवश्यक होता है, वैसे ही जीवन के सभी विभागों में विकास होना वास्तविक उन्नति का लक्षण है ।
यदि हाथ खूब मजबूत हो जायें और पैर बिल्कुल दुबले-पतले बने रहे, तो यह विषमता बहुत बुरी जान पड़ेगी । इसी प्रकार कोई आदमी केवल धनी, केवल विद्वान, केवल पहलवान बन जाय तो यह उन्नति विशेष हितकारी नहीं समझी जा सकती । वह पहलवान किस काम का जो दाने- दाने को मुँहताज हो, वह विद्वान किस काम का जो रोगों से ग्रस्त हो, वह धनी किस काम का जिसके पास न विद्या है न स्वास्थ्य । वही मनुष्य सफल कहा जा सकता है जो अपने स्वास्थ्य को उत्तम बनावे, सुशिक्षा द्वारा बुद्धि का विकास करे, जीवन- निर्वाह के लिए आजीविका का उचित प्रबन्ध करे और समाज में प्रतिष्ठा तथा विश्वास का पात्र समझा जाय ।
Table of content
• उन्नति करना ही जीवन का मूल मंत्र है
• उन्नति के लिए आकांक्षा कीजिए
• उन्नति के मार्ग में कठिनाइयाँ
• उन्नति के लिए प्रयत्न और परिश्रम की आवश्यकता
Author |
Pt shriram sharma acharya |
Edition |
2015 |
Publication |
Yug Nirman Yojana Press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
24 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |