Preface
बच्चों को सुसंस्कृत बनाने वाली रचनात्मक प्रेरणा ही उनकी दीक्षा कही जाती है । शिक्षा के साथ ही दीक्षा भी आवश्यक है ।
मनुष्य का बचपन वह दर्पण है जिसमें उसके भावी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिल जाती है ।। विश्व के महापुरुषों की जीवनी से यह स्पष्ट झलकता है कि उनका बाल्यकाल किस तरह अनुशासित, सुसंस्कृत, आत्म सम्मान पूर्ण था ।। साहस, आत्म विश्वास, धैर्य, संवेदना की ऐसी उदात्त भावनाएँ थीं, जिन्होंने उन्हें महापुरुष के स्थान तक पहुँचा दिया ।। इसके विपरीत अपराधी प्रवृत्ति के मनुष्यों की जीवनी से पता चलता है कि उनका बाल्यकाल किस प्रकार कुंठाओं से ग्रस्त था, अव्यवस्थित था, बच्चे भावी समाज की नींव होते है ।। जिस प्रकार की नींव होगी, उसी के अनुरूप महल या भवन का निर्माण किया जा सकता है ।। यदि नींव ही कमजोर होगी तो कैसे उस पर भव्य भवन निर्मित किया जा सकेगा ।।
परिवार एक प्रयोगशाला होती है और माता उसकी प्रधान "वैज्ञानिक" ।। इस प्रयोगशाला में विभिन्न प्रयोगों से नए- नए आविष्कार किए जा सकते हैं ।। यदि इस प्रयोगशाला में सुसंस्कृत एवं आत्म- सम्मानी बच्चों का निर्माण करना हो तो उन्हीं के अनुरूप प्रयत्न एवं प्रयोग किए जाने चाहिए ।। अपने प्रयोगों को उत्कृष्टता की श्रेणी तक पहुँचाने के लिए यथासंभव प्रयत्न करने पड़ेंगे, जिससे देश व समाज भी लाभान्वित हो सके ।।
Table of content
1. सुसंस्कृत बच्चे सभ्य समाज की नींव
2. बच्चों की शिक्षा और दीक्षा दोनों आवश्यक
3. बालकों की पढ़ाई का ध्यान रहे
4. स्कूल भेजने के साथ यह भी ध्यान रहे
Author |
Pt Shriram Sharma Acharya |
Edition |
2014 |
Publication |
Yug nirman yojana press |
Publisher |
Yug Nirman Yojana Vistara Trust |
Page Length |
48 |
Dimensions |
12 cm x 18 cm |