Preface
ध्यान हमारी दैनंदिन आवश्यकता है। ध्यान में ही हम अपने आपको पूर्णतः जान पाते हैं। यह अन्तर्शक्तियों के जागरण की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। ध्यान एकाग्रता नहीं है पर ध्यान की शुरुआत एकाग्रता से होती है। हम चेतन मन का विकास अचेतन मन से कर अतिचेतन में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। ध्येय के प्रति प्रेम विकसित होकर वैसी ही धारणा बने तब ध्यान लग पाता है। ध्यान से मन में शांति का साम्राज्य स्थापित होता है। योगी का चित्त ध्यान के द्वारा निर्मल हो जाता है। सारे चित्त की सफाई हो जाती है। विगत जीवन- वर्तमान जीवन के सभी मर्म धुल जाते हैं। ध्यान अपने मन में बुहारी लगाने की प्रक्रिया है। अपने आपका संपूर्ण अध्ययन करना हो तो हमें ध्यान करना चाहिए। भगवान् ने ‘‘कर्मसंन्यास योग’’ नामक पाँचवे अध्याय द्वारा एक प्रकार से ध्यान योग की पूर्व भूमिका बना दी है। यही नहीं वे प्रारंभिक आवश्यकताओं मे जहाँ इस ‘‘नवद्वारे पुरे देही’’ (नौ दरवाजों की आध्यात्मिक राजधानी- शरीर) की यात्रा से संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा करते है, वहां वे यह भी बताते हैं कि जितेन्द्रिय होने के साथ विशुद्ध अंतःकरण वाला भी होना चाहिए, ममत्व बुद्धि रहित हो मात्र अंतःकरण- चित्त की शुद्धि के लिए कर्म करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी जरूरत है अपने विवेक चक्षु जाग्रत करना। ऐसा होता है ‘‘आदित्य’’ के समान ज्ञान द्वारा अपने अंदर बैठे परमात्मा को प्रकाशित करने के बाद हमारा मन ध्यान हेतु तद्रूप हो, बुद्धि तद्रूप हो तथा हम सच्चिदानंद घन परमात्मा में ही एकीभाव से स्थित हों। दुखों को लाने वाले अनित्य सुखों में लिप्त न हों एवं आवेगों से प्रभावित न होकर मोक्ष में प्रतिष्ठित होने की बात सोचें।
Table of content
1. प्रथम खण्ड की प्रस्तावना
2. द्वितीय खण्ड की प्रस्तावना
3. तृतीय खण्ड की प्रस्तावना
4. प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड की प्रस्तावना
5. एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः
6. ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक
7. सबसे बड़ा अनुदान परमानंद की पराकाष्ठा वाली दिव्य शांति
8. युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
9. कैसा होना चाहिए योगी का संयत चित्त
10. योग की चरमावस्था की ओर ले जाते योगेश्वर
11. परमात्मारूपी लाभ को प्राप्त व्यक्ति दुःख में विचलित नहीं होता
12. बार-बार मन को परमात्मा में ही निरुद्ध किया जाए
13. चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग
14. ध्यान की पराकाष्ठा पर होती है सर्वोच्च अनुभूति
15. यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
16. सुख या दुख में सर्वत्र समत्व के दर्शन करता है योगी
17. कैसे आए यह चंचल मन काबू में ?
18. अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते
19. कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती
20. भविष्य में हमारी क्या गति होगी, हम स्वयं निर्धारित करते हैं
21. योग पथ पर चलने वाले का सदा कल्याण ही कल्याण है
22. तस्मात् योगी भवार्जुन्
23. वही ध्यानयोगी है श्रेष्ठ जो प्रभु को समर्पित है
Author |
Dr. Pranav Pandya |
Edition |
2011 |
Publication |
Shri Ved Mata Gayatri Trust |
Publisher |
Shri Vedmata Gayatri Trust |
Page Length |
190 |
Dimensions |
225mmX145mmX13mm |